चार शब्दों में लिखा लोकतंत्र का शोकगीत, ‘थैंक्स फॉर 90 वोट्स’।

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दुःखी हूँ..कि किसी प्रदेश की जनता इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती है, जिस इंसान ने अपने जीवन के 16 साल प्रदेश की जनता के हितों के लिए समर्पित कर दिए वो स्वार्थी जनता इरोम के साथ ऐसा बर्ताव करेगी…इरोम के साथ जो हुआ…क्या इन परिस्थितियों में कोई समाज के कल्याण के लिए निस्वार्थ भाव से संघर्ष कर सकता है.।
मणिपुर का मालोम बस स्टैंड. तारीख़ 2 नवंबर, 2000. एक महिला कवि बस स्टैंड पर खड़ी थी. सुरक्षाबलों का एक दस्ता पहुंचता है और दस युवाओं पर अंधाधुंध गोलियां बरसा कर उन्हें भून देता है. कवि हृदय रो पड़ता है. भारतीय संविधान में तो अपराधी या आतंकी को भी ऐसी सज़ा देने का प्रावधान नहीं है!

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उस महिला कवि ने फ़ैसला किया कि वह इस काले क़ानून के ख़िलाफ़ लड़ेगी. इस तरह किसी को कैसे मारा जा सकता है? यह कौन सा क़ानून है? यह क़ानून है सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम यानी आफ्सपा, जो पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में लागू है. यह क़ानून सुरक्षा बलों को यह अधिकार देता है कि वह किसी को शक के आधार पर गोली मार सकते हैं.
उस युवा महिला कवि का नाम है इरोम शर्मिला चानू. इरोम ने अगले दिन से इस क़ानून के ख़िलाफ़ अनशन शुरू कर दिया. यह अनशन अन्ना हज़ारे का अनशन नहीं था. उन्होंने 16 साल तक एक अनसुना अनशन किया. कोर्ट के आदेश पर उन्हें आत्महत्या की कोशिश के आरोप में पुलिस हिरासत में रखकर नाक में नली डालकर तरल भोजन दिया जाता रहा. वे अनशन करती रहीं और हारती रहीं.
दिल्ली की एक अदालत में इरोम ने पिछले साल आंख में आंसू भरकर कहा था, ‘मैं ज़िंदा रहना चाहती हूं. मैं जीना चाहती हूं. शादी करना चाहती हूं, प्रेम करना चाहती हूं, लेकिन उससे पहले यह चाहती हूं कि हमारे प्रदेश से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम हटा लिया जाए.’ वे 16 साल तक इस एक इच्छा के लिए लड़ती और हारती रहीं.

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अंतत: इरोम ने तय किया कि वे चुनावी रास्ते से विधायिका में जाएंगी और इस क़ानून के ख़िलाफ़ लड़ेंगी. वे इस बार मणिपुर के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ीं और 90 वोट पाकर हार गईं. जिस प्रदेश की जनता के जीने के अधिकार के लिए वे 16 वर्षों तक लड़ती रहीं, उस जनता ने उनके सियासी सपने को बेरहमी से मार दिया. इरोम ने आंखों में एक सपना लेकर चुनावी अखाड़े में प्रवेश किया था और आंखों में आंसुओं का सैलाब लेकर उस अखाड़े से बाहर निकल गईं, साथ में यह कहती गईं, ‘अब इधर कभी नहीं आना है.’ उन्होंने सियासी जीवन जिए बिना उससे संन्यास की घोषणा कर दी.
अफ्स्पा को लेकर 16 वर्षों तक अनशन करने वाली इरोम शर्मिला वैसे ही हार गई हैं, जैसे मणिपुर में मनोरमा हार गई थी, जैसे मनोरमा कांड में न्याय पाने के लिए नग्न होकर प्रदर्शन करने वाली महिलाएं हार गई थीं, जैसे बस्तर में मड़कम हिड़मे और सुखमती हार गई. इस हार के बदले आज इरोम ने फेसबुक पर लिखा, थैंक्स फॉर 90 वोट्स.
इरोम 16 साल से लड़ रही हैं और बार-बार हार रही हैं. वे कह रही थीं कि सेना को वह अधिकार न दिया जाए, जिसके तहत वह किसी को शक के आधार पर गोली मार देने का अधिकार रखती है.
वे चाहती हैं कि सेना को इतना अधिकार न हो कि वह किसी मनोरमा का बलात्कार कर दे या चौराहे पर खड़े किन्हीं युवाओं को बिना कारण गोलियां बरसा कर भून दे, या किसी 12 साल के बच्चे को पेशेवर आतंकी घोषित करके उसकी मां के सामने उसका ‘एनकाउंटर’ कर दे.
जिस तरह चुनाव में नोटबंदी में मरे क़रीब 150 लोग कोई मुद्दा नहीं थे, जिस तरह उत्तर प्रदेश में कुपोषित आधी महिलाएं कोई मुद्दा नहीं थीं, जिस तरह डायरिया या इनसेफलाइटिस से मरने वाले लाखों बच्चे कोई मुद्दा नहीं होते, उसी तरह इरोम का 16 साल तक संघर्ष करके अपना जीवन दे देना कोई मुद्दा नहीं रहा.
जिस लोकतंत्र में अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमनमणि त्रिपाठी पत्नी की हत्या के केस में जेल में बंद रहकर चुनाव जीत जाते हों, माफ़िया मुख़्तार अंसारी जेल में रहकर चुनाव जीत जाते हों, बाहुबली सुशील कुमार, रघुराज प्रताप सिंह और विजय मिश्र आदि चुनाव जीत जाते हों, वहां पर हत्याओं के विरोध में ज़िंदगी खपा देने वाली इरोम की हार तो जैसे पहले से ही तय थी. तमाम बाहुबलियों को भारी बहुमत से जिता देने वाली जनता ने आंसुओं से गीली आंखों वाला, नाक में नली डाले एक कवयित्री का चेहरा पसंद नहीं किया.

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इरोम ने 16 साल बाद अपना अनशन तोड़ा था और चुनावी राजनीति में उतरकर बदलाव लाने का फ़ैसला किया था. उन्होंने ‘पीपुल्स रिइंसर्जेंस एंड जस्टिस अलाएंस’ नाम की पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा, लेकिन मणिपुर के मतदाताओं ने इरोम को नोटा का विकल्प समझना भी मुनासिब नहीं समझा. उन्हें मात्र 90 वोट मिले. चुनाव परिणाम आने के बाद इरोम रोईं और राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर डाली.
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